आवाज़ों का बोझ उठाए सदियों से
बंजारों की तरह गुज़ारा करता हूँ
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सन्नाटे का दर्द निखारा करता हूँ
उस ने कल भागते लम्हों को पकड़ रक्खा था
कमरे में धुआँ दर्द की पहचान बना था
मुझे भी फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल न थी
नज़्म
किस का है जुर्म किस की ख़ता सोचना पड़ा
चेहरों के मैले जिस्मों के जंगल थे हर जगह
शायद तुम्हारी याद मिरे पास आ गई
धूप चमकी रात की तस्वीर पीली हो गई
मैं ने कल तोड़ा इक आईना तो महसूस हुआ
ख़याल लम्स का कार-ए-सवाब जैसा था