तहत-ए-शुऊर की
तारीकी में
इक पज़-मुर्दा
गुल-ए-लाला के
सुर्ख़ ओ सियह
पंखुड़ियों के रेज़े
पिछले अठारह बरसों से
सिसक रहे हैं
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Habib Jalib
Jaun Eliya
Gulzar
Rahat Indori
Wasi Shah
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
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किस का है जुर्म किस की ख़ता सोचना पड़ा
ख़ुशनुमा दीवार-ओ-दर के ख़्वाब ही देखा किए
तुम्हारी बज़्म में जिस बात का भी चर्चा था
तमाम रात वो पहलू को गर्म करता रहा
मैं ने कल तोड़ा इक आईना तो महसूस हुआ
मुझे भी फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल न थी
परिंदे फ़ज़ाओं में फिर खो गए
तन्हा उदास शब के सिवा कोई भी न था
ज़मीं पे आग फ़लक पर धुआँ दिखाई दिया
धूप चमकी रात की तस्वीर पीली हो गई
चेहरों के मैले जिस्मों के जंगल थे हर जगह
आवाज़ों का बोझ उठाए सदियों से