पूछता फिरता हूँ मैं अपना पता जंगल से
आख़िरी बार दरख़्तों ने मुझे देखा था
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क्यूँ चलती ज़मीं रुकी हुई है
सुना रहा हूँ किसी और को कथा अपनी
दश्त में उस का आब-ओ-दाना है
अब मनाना उसे मुश्किल है कि ये आख़िरी पल
शहर से जब भी कोई शहर जुदा होता है
गले लगाए मुझे मेरा राज़दाँ हो जाए
फ़लक से कैसे मिरा ग़म दिखाई देगा तुझे
हज़ार ता'ने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
मियाँ ये इश्क़ तो सब टूट कर ही करते हैं
सब मुझे ढूँडने निकले हैं बुझा कर आँखें
ऐ ख़ुदा एक बार मिल मुझ से
निकाल लाए हैं सब लोग उस के अक्स में नक़्स