निकाल लाए हैं सब लोग उस के अक्स में नक़्स
ये आईना अभी तय्यार होने वाला है
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बड़े सुकून से अफ़्सुर्दगी में रहता हूँ
आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में
सुना रहा हूँ किसी और को कथा अपनी
ये कार-ए-ख़ैर है इस को न कार-ए-बद समझो
फ़लक से कैसे मिरा ग़म दिखाई देगा तुझे
रोज़ इक बाग़ गुज़रता है इसी रस्ते से
कौन कहता है कि वहशत मिरे काम आई है
दश्त में उस का आब-ओ-दाना है
अब मनाना उसे मुश्किल है कि ये आख़िरी पल
ऐ ख़ुदा एक बार मिल मुझ से
ये मोहब्बत कोई अंजान सी शय होती थी