ये मोहब्बत कोई अंजान सी शय होती थी
क्या ये कम है कि इसे तेरी बदौलत समझे
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ज़ख़्म देखे जिस्म देखा और पहचाना उसे
हज़ार ता'ने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
अब मनाना उसे मुश्किल है कि ये आख़िरी पल
क्यूँ चलती ज़मीं रुकी हुई है
मियाँ ये इश्क़ तो सब टूट कर ही करते हैं
बड़े सुकून से अफ़्सुर्दगी में रहता हूँ
हज़ार ताने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में
ऐ ख़ुदा एक बार मिल मुझ से
रोज़ इक बाग़ गुज़रता है इसी रस्ते से
गले लगाए मुझे मेरा राज़दाँ हो जाए