रोज़ इक बाग़ गुज़रता है इसी रस्ते से
रोज़ कश्कोल में इक फूल धरा होता है
ज़ख़्म और पेड़ ने इक साथ दुआ माँगी है
देखिए पहले यहाँ कौन हरा होता है
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हज़ार ताने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
मैं ने लोगों को न लोगों ने मुझे देखा था
ज़मीं के ग़र्ब से सूरज तुलूअ' करता हूँ
शहर से जब भी कोई शहर जुदा होता है
सुना रहा हूँ किसी और को कथा अपनी
पूछता फिरता हूँ मैं अपना पता जंगल से
दश्त में उस का आब-ओ-दाना है
बड़े सुकून से अफ़्सुर्दगी में रहता हूँ
सब मुझे ढूँडने निकले हैं बुझा कर आँखें
क्यूँ चलती ज़मीं रुकी हुई है
ये कार-ए-ख़ैर है इस को न कार-ए-बद समझो
मैं इस कहानी में तरमीम कर के लाया हूँ