अब मनाना उसे मुश्किल है कि ये आख़िरी पल
रूठने के लिए तय्यार हुआ बैठा है
मेरे बाहर तिरे आने की ख़ुशी हो कि न हो
मेरे अंदर कोई सरशार हुआ बैठा है
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बड़े सुकून से अफ़्सुर्दगी में रहता हूँ
आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में
ज़ख़्म और पेड़ ने इक साथ दुआ माँगी है
आख़िरी बार ज़माने को दिखाया गया हूँ
रोज़ इक बाग़ गुज़रता है इसी रस्ते से
अभी से इस में शबाहत मिरी झलकने लगी
क्यूँ चलती ज़मीं रुकी हुई है
निकाल लाए हैं सब लोग उस के अक्स में नक़्स
इक अजनबी की तरह है ये ज़िंदगी मिरे साथ
मैं इस कहानी में तरमीम कर के लाया हूँ
गले लगाए मुझे मेरा राज़-दाँ हो जाए
शहर से जब भी कोई शहर जुदा होता है