अभी से इस में शबाहत मिरी झलकने लगी
अभी तो दश्त में दो चार दिन गुज़ारे हैं
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आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में
सुना रहा हूँ किसी और को कथा अपनी
मैं इस कहानी में तरमीम कर के लाया हूँ
निकाल लाए हैं सब लोग उस के अक्स में नक़्स
पूछता फिरता हूँ मैं अपना पता जंगल से
ज़ख़्म देखे जिस्म देखा और पहचाना उसे
बड़े सुकून से अफ़्सुर्दगी में रहता हूँ
हज़ार ताने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
ज़मीं के ग़र्ब से सूरज तुलूअ' करता हूँ
गले लगाए मुझे मेरा राज़दाँ हो जाए
कौन कहता है कि वहशत मिरे काम आई है
गले लगाए मुझे मेरा राज़-दाँ हो जाए