दिवाने दिल कूँ मेरे शहर सें हरगिज़ नहीं बनती
अगर जंगल का जाना हो तो उस की बात सब बन जा
Wasi Shah
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अब दीन हुआ ज़माना-साज़ी
ये बाव क्या फिरी कि तिरी लट पलट गई
तुम्हारे लोग कहते हैं कमर है
गली अकेली है प्यारे अँधेरी रातें हैं
मिल गईं आपस में दो नज़रें इक आलम हो गया
इंसान है तो किब्र सीं कहता है क्यूँ अना
अगर अँखियों सीं अँखियों को मिलाओगे तो क्या होगा
क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
क़द सर्व चश्म नर्गिस रुख़ गुल दहान ग़ुंचा
फ़जर उठ ख़्वाब सीं गुलशन में जब तुम ने मली अँखियाँ
मिल गया था बाग़ में माशूक़ इक नक-दार सा