ये सब्ज़ा और ये आब-ए-रवाँ और अब्र ये गहरा

ये सब्ज़ा और ये आब-ए-रवाँ और अब्र ये गहरा

दिवाना नहिं कि अब घर में रहूँ मैं छोड़ कर सहरा

अँधेरी रात में मजनूँ को जंगल बीच क्या डर है

पपीहा को कला क्यूँ मिल के दे हैं हर घड़ी पहरा

गया था रात झड़ बदली में ज़ालिम किस तरफ़ कूँ तू

तड़प सीं दिल मिरा बिजली की जूँ अब लग नहीं ठहरा

वो काकुल इस तरह के हैं बला काले कि जो देखे

तो मर जा नाग उस का आब हो जा ख़ौफ़ सीं ज़हरा

एसी कहानी बिकट है इश्क़ काफ़िर की जो देखे

तो रोवें नुह फ़लक और चश्म हो जाँ उन की नौ नहरा

रवाँ नहिं तब्अ जिस की शेर-ए-तर की तर्ज़ पाने में

नहीं होता है उस कूँ 'आबरू' के हर्फ़ सीं बहरा

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