खार Poetry (page 11)
ख़त ज़मीं पर न ऐ फ़ुसूँ-गर काट
ग़ुलाम मौला क़लक़
हो जुदा ऐ चारा-गर है मुझ को आज़ार-ए-फ़िराक़
ग़ुलाम मौला क़लक़
दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ
ग़ुलाम मौला क़लक़
ऐ ख़ार ख़ार-ए-हसरत क्या क्या फ़िगार हैं हम
ग़ुलाम मौला क़लक़
इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं
ग़ुलाम हुसैन साजिद
फिर वही हम हैं ख़याल-ए-रुख़-ए-ज़ेबा है वही
ग़ुलाम भीक नैरंग
ज़बाँ साकित हो क़त-ए-गुफ़्तुगू हो
ग़ुबार भट्टी
मुझे किस तरह से न हो यक़ीं कि उसे ख़िज़ाँ से गुरेज़ है
ग़ुबार भट्टी
मिरे मुद्दआ-ए-उल्फ़त का पयाम बन के आई
ग़ुबार भट्टी
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
ग़ालिब
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
ग़ालिब
वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक
ग़ालिब
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
ग़ालिब
तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
ग़ालिब
शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था
ग़ालिब
नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
ग़ालिब
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
ग़ालिब
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
ग़ालिब
मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
ग़ालिब
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
ग़ालिब
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
ग़ालिब
जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी
ग़ालिब
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
ग़ालिब
जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
ग़ालिब
जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा
ग़ालिब
है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा
ग़ालिब
दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
ग़ालिब
चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है
ग़ालिब
बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
ग़ालिब
'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
ग़ालिब
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