घाटे Poetry (page 1)

हैं गर्दिशें भी रवाँ बख़्त के सितारे में

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

जाने क्या बात है पूरे ही नहीं होते हैं

ज़करिय़ा शाज़

ये जो बिफरे हुए धारे लिए फिरता हूँ मैं

ज़करिय़ा शाज़

सिर्फ़ आँखें थीं अभी उन में इशारे नहीं थे

ज़फ़र इक़बाल

किसी ख़सारे के सौदे में हाथ आया था

यासमीन हबीब

ये कमरा और ये गर्द-ओ-ग़ुबार उस का है

यासमीन हबीब

पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं

सय्यद अमीन अशरफ़

मुनव्वर और मुबहम इस्तिआरे देख लेता हूँ

सय्यद अमीन अशरफ़

आसमाँ एक किनारे से उठा सकती हूँ

सिदरा सहर इमरान

राह में घर के इशारे भी नहीं निकलेंगे

शकील आज़मी

तो क्या तड़प न थी अब के मिरे पुकारे में

शहराम सर्मदी

नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम

सऊद उस्मानी

अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ

सरवत हुसैन

जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में

सरवत हुसैन

मुनाफ़ा मुश्तरक है और ख़सारे एक जैसे हैं

सरफ़राज़ शाहिद

सहमे नहीफ़ दरिया के धारे की बात कर

सलीम फ़िगार

ये कारोबार-ए-मोहब्बत है तुम न समझोगे

साबिर

मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में

साबिर

महताब नहीं निकला सितारे नहीं निकले

राजेन्द्र नाथ रहबर

जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं

इक़बाल कौसर

जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं

इक़बाल कौसर

मोहब्बत

इंजिला हमेश

अपने हिस्से में ही आने थे ख़सारे सारे

इमरान-उल-हक़ चौहान

एक बार कहो तुम मेरी हो

इब्न-ए-इंशा

मिला है जिस्म कि उस का गुमाँ मिला है मुझे

फ़रहत एहसास

यहीं था बैठा हुआ दरमियाँ कहाँ गया मैं

एजाज़ गुल

थम गई वक़्त की रफ़्तार तिरे कूचे में

एजाज़ गुल

दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई

दिलावर अली आज़र

धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं

अज़हर फ़राग़

ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ

असलम महमूद

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