जाने क्या बात है पूरे ही नहीं होते हैं
जाने क्या दिल में ख़सारे लिए फिरता हूँ मैं
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ज़माने हो गए हैं चलते चलते
ये कैसे मोड़ पर मैं आ गया हूँ
देखो घिर कर बादल आ भी सकता है
उन को भी उतारा है बड़े शौक़ से हम ने
दुख न सहने की सज़ाओं में घिरा रहता है
उस से आगे जाओगे तब जानेंगे
खिड़की तो 'शाज़' बंद मैं करता हूँ बार बार
'शाज़' ख़ुद में ही गँवाए हुए ख़ुद को रखना
एक मुद्दत मैं ख़मोशी से रहा महव-ए-कलाम
संग किसी के चलते जाएँ ध्यान किसी का रक्खें
सिर्फ़ हम ही तो नहीं टूटे हैं