सिर्फ़ हम ही तो नहीं टूटे हैं
रास्तों पर भी थकन तारी है
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जाने क्या बात है पूरे ही नहीं होते हैं
कैसे कह दूँ बीच अपने दीवार है जब
खिड़की तो 'शाज़' बंद मैं करता हूँ बार बार
किस क़यामत की घुटन तारी है
जब भी घर के अंदर देखने लगता हूँ
ये अलग बात कि चलते रहे सब से आगे
मुझ तक निगाह आई जो वापस पलट गई
छाँव से उस ने दामन भर के रक्खा है
आख़िर ये नाकाम मोहब्बत काम आई
उस से आगे जाओगे तब जानेंगे
अपने ही बस पीछे भागता रहता हूँ