आख़िर ये नाकाम मोहब्बत काम आई
तुझ को खो कर मैं ने ख़ुद को पाया है
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किस क़यामत की घुटन तारी है
धूप सरों पर और दामन में साया है
एक मुद्दत मैं ख़मोशी से रहा महव-ए-कलाम
दुख न सहने की सज़ाओं में घिरा रहता है
ये कैसे मोड़ पर मैं आ गया हूँ
सिर्फ़ हम ही तो नहीं टूटे हैं
जब भी घर के अंदर देखने लगता हूँ
तअल्लुक़ ही नहीं है जिन से मेरा
फाँदनी पड़ गई काँटों से भरी बाड़ हमें
मैं चुप रहा तो आँख से आँसू उबल पड़े