ये कैसे मोड़ पर मैं आ गया हूँ
कि चलता हूँ तो चलता रास्ता है
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उस से आगे जाओगे तब जानेंगे
कैसे कह दूँ बीच अपने दीवार है जब
दुख न सहने की सज़ाओं में घिरा रहता है
आख़िर ये नाकाम मोहब्बत काम आई
किस क़यामत की घुटन तारी है
तअल्लुक़ ही नहीं है जिन से मेरा
उन को भी उतारा है बड़े शौक़ से हम ने
जब भी घर के अंदर देखने लगता हूँ
ज़माने हो गए हैं चलते चलते
मैं चुप रहा तो आँख से आँसू उबल पड़े
धूप सरों पर और दामन में साया है
'शाज़' ख़ुद में ही गँवाए हुए ख़ुद को रखना