एक मुद्दत मैं ख़मोशी से रहा महव-ए-कलाम
तब कहीं जा के ये लफ़्ज़ों में मआनी आए
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ये अलग बात कि चलते रहे सब से आगे
कैसे कह दूँ बीच अपने दीवार है जब
उतरें गहराई में तब ख़ाक से पानी आए
फाँदनी पड़ गई काँटों से भरी बाड़ हमें
'शाज़' ख़ुद में ही गँवाए हुए ख़ुद को रखना
इक जैसे हैं दुख सुख सब के इक जैसी उम्मीदें
कुछ भी देखा नहीं था मैं ने जब
छोड़ आया हूँ पीछे सब आवाज़ों को
मैं चुप रहा तो आँख से आँसू उबल पड़े
छाँव से उस ने दामन भर के रक्खा है
धूप सरों पर और दामन में साया है
अपने ही बस पीछे भागता रहता हूँ