दुख न सहने की सज़ाओं में घिरा रहता है
शहर का शहर दुआओं में घिरा रहता है
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क्या नज़ारा था मेरी आँखों में
'शाज़' ख़ुद में ही गँवाए हुए ख़ुद को रखना
छोड़ आया हूँ पीछे सब आवाज़ों को
अपने ही बस पीछे भागता रहता हूँ
खोया हुआ था हासिल होने वाला हूँ
ये कैसे मोड़ पर मैं आ गया हूँ
फाँदनी पड़ गई काँटों से भरी बाड़ हमें
ज़माने हो गए हैं चलते चलते
कैसे कह दूँ बीच अपने दीवार है जब
ये जो बिफरे हुए धारे लिए फिरता हूँ मैं
सिर्फ़ हम ही तो नहीं टूटे हैं
खिड़की तो 'शाज़' बंद मैं करता हूँ बार बार