सपना Poetry (page 4)

सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

जुनून-ए-इश्क़-ए-सर बेदार भी है

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

कैसी ताबीर की हसरत कि 'ज़िया' बरसों से

ज़िया ज़मीर

ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई

ज़िया ज़मीर

सफ़र मुझ पर अजब बरपा रही है

ज़िया ज़मीर

रेज़ा रेज़ा तिरे चेहरे पे बिखरती हुई शाम

ज़िया ज़मीर

जिस तरह प्यासा कोई आब-ए-रवाँ तक पहुँचे

ज़िया ज़मीर

जाँ का दुश्मन है मगर जान से प्यारा भी है

ज़िया ज़मीर

इतनी शिद्दत से गले मुझ को लगाया हुआ है

ज़िया ज़मीर

आख़िरश कर लिया क़ुबूल हमें

ज़िया ज़मीर

वो ख़्वाब क्या था कि जिस की हयात है ताबीर

ज़िया जालंधरी

वक़्त बे-मेहर है इस फ़ुर्सत-ए-कमयाब में तुम

ज़िया जालंधरी

वक़्त कातिब है

ज़िया जालंधरी

तुलूअ'

ज़िया जालंधरी

तसलसुल

ज़िया जालंधरी

शहर-ए-आशोब

ज़िया जालंधरी

ख़ुद फ़रेब

ज़िया जालंधरी

हम

ज़िया जालंधरी

अबुल-हौल

ज़िया जालंधरी

तुम्हारी चाहत की चाँदनी से हर इक शब-ए-ग़म सँवर गई है

ज़िया जालंधरी

शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं

ज़िया जालंधरी

निगाहों में ये क्या फ़रमा गई हो

ज़िया जालंधरी

मुंजमिद होंटों पे है यख़ की तरह हर्फ़-ए-जुनूँ

ज़िया जालंधरी

कहाँ का सब्र सौ सौ बार दीवानों के दिल टूटे

ज़िया जालंधरी

जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना

ज़िया जालंधरी

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