वक़्त बे-मेहर है इस फ़ुर्सत-ए-कमयाब में तुम
मेरी आँखों में रहो ख़्वाब-ए-मुजस्सम की तरह
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शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं
क्या सरोकार अब किसी से मुझे
वो शाख़ बने-सँवरे वो शाख़ फले-फूले
शहर-ए-आशोब
इक ख़्वाब था आँखों में जो अब अश्क-ए-सहर है
तुम्हारी चाहत की चाँदनी से हर इक शब-ए-ग़म सँवर गई है
पैग़ाम
आज ही महफ़िल सर्द पड़ी है आज ही दर्द फ़रावाँ है
जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना
तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ
दिखावा
कितनी देर और है ये बज़्म-ए-तरब-नाक न कह