महफ़िल Poetry (page 26)

सब काएनात-ए-हुस्न का हासिल लिए हुए

बासित भोपाली

मेरे रोने पर किसी की चश्म गिर्यां हाए हाए

बासित भोपाली

कोई मेयार-ए-मोहब्बत न रहा मेरे बा'द

बासित भोपाली

ज़ौक़-ए-उल्फ़त अब भी है राहत का अरमाँ अब भी है

बशीरुद्दीन अहमद देहलवी

ज़ाहिर मिरी शिकस्त के आसार भी नहीं

बशीर सैफ़ी

ये हुस्न है झरनों में न है बाद-ए-चमन में

बशर नवाज़

रोज़ कहाँ से कोई नया-पन अपने आप में लाएँगे

बशर नवाज़

रब्त हर बज़्म से टूटे तिरी महफ़िल के सिवा

बशर नवाज़

ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए

बशर नवाज़

लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता

मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

राज़-ए-सर-बस्ता है महफ़िल तेरी

बाक़ी सिद्दीक़ी

हर याद हर ख़याल है लफ़्ज़ों का सिलसिला

बाक़ी सिद्दीक़ी

वो मक़ाम-ए-दिल-ओ-जाँ क्या होगा

बाक़ी सिद्दीक़ी

कहता है हर मकीं से मकाँ बोलते रहो

बाक़ी सिद्दीक़ी

दाग़-ए-दिल हम को याद आने लगे

बाक़ी सिद्दीक़ी

थे हम इस्तादा तिरे दर पे वले बैठ गए

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

मुझे तो इश्क़ में अब ऐश-ओ-ग़म बराबर है

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

ये सोच कर तिरी महफ़िल से हम चले आए

बाक़र मेहदी

फ़रेब खा के भी शर्मिंदा-ए-सुकूँ न हुए

बाक़र मेहदी

औरों पे इत्तिफ़ाक़ से सब्क़त मिली मुझे

बाक़र मेहदी

कितना भी मुस्कुराइए दिल है मगर बुझा बुझा

बनो ताहिरा सईद

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी

ज़फ़र

वो सौ सौ अठखटों से घर से बाहर दो क़दम निकले

ज़फ़र

वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है

ज़फ़र

टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच

ज़फ़र

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी

ज़फ़र

जले हैं दिल न चराग़ों ने रौशनी की है

बदीउज़्ज़माँ ख़ावर

अजब महफ़िल है सब इक दूसरे पर हँस रहे हैं

अज़्म बहज़ाद

मुझे कल अचानक ख़याल आ गया आसमाँ खो न जाए

अज़्म बहज़ाद

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