बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
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'ज़फ़र' बदल के रदीफ़ और तू ग़ज़ल वो सुना
जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं
सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह
काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी
क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें
क्या पूछता है हम से तू ऐ शोख़ सितमगर
शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़
वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है
इधर ख़याल मिरे दिल में ज़ुल्फ़ का गुज़रा
हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
लड़ा कर आँख उस से हम ने दुश्मन कर लिया अपना
न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर