क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिला कर कहे बग़ैर
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रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा
न दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
लड़ा कर आँख उस से हम ने दुश्मन कर लिया अपना
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते
नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें कि क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा
बुराई या भलाई गो है अपने वास्ते लेकिन
तू कहीं हो दिल-ए-दीवाना वहाँ पहुँचेगा
चाहिए उस का तसव्वुर ही से नक़्शा खींचना
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी