कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में
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हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए
याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है
हम ये तो नहीं कहते कि ग़म कह नहीं सकते
गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
क्यूँकर न ख़ाकसार रहें अहल-ए-कीं से दूर
यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी मैं न था
क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्यूँकर हुआ
बुराई या भलाई गो है अपने वास्ते लेकिन
हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
मेहनत से है अज़्मत कि ज़माने में नगीं को