हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार
इख़्तियार अपना गया बे-इख़्तियारी रह गई
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लोगों का एहसान है मुझ पर और तिरा मैं शुक्र-गुज़ार
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्यूँकर हुआ
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें
नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें कि क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा
जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं
बनाया ऐ 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर
मेरे सुर्ख़ लहू से चमकी कितने हाथों में मेहंदी
गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है
बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र'