हाथ क्यूँ बाँधे मिरे छल्ला अगर चोरी हुआ
ये सरापा शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना थी मैं न था
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बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र'
क़ारूँ उठा के सर पे सुना गंज ले चला
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
क्या पूछता है हम से तू ऐ शोख़ सितमगर
न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल
दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ
बे-ख़ुदी में ले लिया बोसा ख़ता कीजे मुआफ़
ग़ज़ब है कि दिल में तो रक्खो कुदूरत
वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है
जो तू हो साफ़ तो कुछ मैं भी साफ़ तुझ से कहूँ
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
ये चमन यूँही रहेगा और हज़ारों बुलबुलें