ये चमन यूँही रहेगा और हज़ारों बुलबुलें
अपनी अपनी बोलियाँ सब बोल कर उड़ जाएँगी
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ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो
शमशीर-ए-बरहना माँग ग़ज़ब बालों की महक फिर वैसी ही
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
क्यूँकि हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं
ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई
हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल