न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना
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यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी मैं न था
मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम
बनाया ऐ 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर
वाक़िफ़ हैं हम कि हज़रत-ए-ग़म ऐसे शख़्स हैं
ऐ वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से
ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
बुराई या भलाई गो है अपने वास्ते लेकिन
याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है
बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र'
या मुझे अफ़सर-ए-शाहाना बनाया होता