न मुझ को कहने की ताक़त कहूँ तो क्या अहवाल
न उस को सुनने की फ़ुर्सत कहूँ तो किस से कहूँ
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ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
करेंगे क़स्द हम जिस दम तुम्हारे घर में आवेंगे
बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र'
याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है
ख़्वाब मेरा है ऐन बेदारी
न दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था
लोगों का एहसान है मुझ पर और तिरा मैं शुक्र-गुज़ार
न दाइम ग़म है ने इशरत कभी यूँ है कभी वूँ है
हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार
हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
वाक़िफ़ हैं हम कि हज़रत-ए-ग़म ऐसे शख़्स हैं