बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र'
क्या कहूँ तुझ से कि वो तर्ज़-ए-परस्तिश और है
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मैं हूँ आसी कि पुर-ख़ता कुछ हूँ
तू कहीं हो दिल-ए-दीवाना वहाँ पहुँचेगा
वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है
ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़
ख़ुदा के वास्ते ज़ाहिद उठा पर्दा न काबे का
वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है
हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार
हाथ क्यूँ बाँधे मिरे छल्ला अगर चोरी हुआ
देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या