न दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था
वो आज ले ही गया और 'ज़फ़र' से कुछ न हुआ
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गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है अगर बट जाएगी
देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़
तमन्ना है ये दिल में जब तलक है दम में दम अपने
है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की
औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह कर बेदाद तू
हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में
बनाया ऐ 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ