ऐ वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से
दिल्ली 'ज़फ़र' के हाथ से पल में निकल गई
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हाथ क्यूँ बाँधे मिरे छल्ला अगर चोरी हुआ
चाहिए उस का तसव्वुर ही से नक़्शा खींचना
नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें कि क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा
तमन्ना है ये दिल में जब तलक है दम में दम अपने
न मुझ को कहने की ताक़त कहूँ तो क्या अहवाल
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह
वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है
फ़रहाद ओ क़ैस ओ वामिक़ ओ अज़रा थे चार दोस्त
है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की
देखो इंसाँ ख़ाक का पुतला बना क्या चीज़ है