ग़ज़ब है कि दिल में तो रक्खो कुदूरत
करो मुँह पे हम से सफ़ाई की बातें
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कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
मेरे सुर्ख़ लहू से चमकी कितने हाथों में मेहंदी
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ
ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह कर बेदाद तू
ख़्वाब मेरा है ऐन बेदारी
हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में
काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी
क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते
बनाया ऐ 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर