हाल-ए-दिल क्यूँ कर करें अपना बयाँ अच्छी तरह
रू-ब-रू उन के नहीं चलती ज़बाँ अच्छी तरह
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हमदमो दिल के लगाने में कहो लगता है क्या
हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए
ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह कर बेदाद तू
रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा
काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
सब मिटा दें दिल से हैं जितनी कि उस में ख़्वाहिशें
'ज़फ़र' बदल के रदीफ़ और तू ग़ज़ल वो सुना
क्यूँकि हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं
याँ तक अदू का पास है उन को कि बज़्म में
न उस का भेद यारी से न अय्यारी से हाथ आया