याँ तक अदू का पास है उन को कि बज़्म में
वो बैठते भी हैं तो मिरे हम-नशीं से दूर
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जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं
हम ये तो नहीं कहते कि ग़म कह नहीं सकते
ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह
'ज़फ़र' बदल के रदीफ़ और तू ग़ज़ल वो सुना
इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल कौन कहता सहल है
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल