मेहनत से है अज़्मत कि ज़माने में नगीं को
बे-काविश-ए-सीना न कभी नामवरी दी
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न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
मर्ग ही सेहत है उस की मर्ग ही उस का इलाज
हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
न दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था
जिगर के टुकड़े हुए जल के दिल कबाब हुआ
लड़ा कर आँख उस से हम ने दुश्मन कर लिया अपना
ख़ुदा के वास्ते ज़ाहिद उठा पर्दा न काबे का
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें
देखो इंसाँ ख़ाक का पुतला बना क्या चीज़ है
शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़