हर याद हर ख़याल है लफ़्ज़ों का सिलसिला
ये महफ़िल-ए-नवा है यहाँ बोलते रहो
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दिल में जब बात नहीं रह सकती
क्या पता हम को मिला है अपना
क्यूँ सबा की न हो रफ़्तार ग़लत
आस्तीं में साँप इक पलता रहा
कुछ न पा कर भी मुतमइन हैं हम
कहता है हर मकीं से मकाँ बोलते रहो
यूँ भी होने का पता देते हैं
एक पल में वहाँ से हम उट्ठे
यही रस्ता है अब यही मंज़िल
ख़ुद-फ़रेबी सी ख़ुद-फ़रेबी है
तुम भी उल्टी उल्टी बातें पूछते हो