हर नए हादसे पे हैरानी
पहले होती थी अब नहीं होती
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वक़्त का पत्थर भारी होता जाता है
रस्म-ए-सज्दा भी उठा दी हम ने
क्या पता हम को मिला है अपना
हम ज़र्रे हैं ख़ाक-ए-रहगुज़र के
अपनी धूप में भी कुछ जल
तेरी हर बात पे चुप रहते हैं
कश्तियाँ टूट गई हैं सारी
हम कहाँ आइना ले कर आए
कहता है हर मकीं से मकाँ बोलते रहो
रहने दो कि अब तुम भी मुझे पढ़ न सकोगे
हर तरफ़ बिखर हैं रंगीं साए
हाए वो बातें जो कह सकते नहीं