वक़्त का पत्थर भारी होता जाता है
हम मिट्टी की सूरत देते जाते हैं
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उन का या अपना तमाशा देखो
दोस्त हर ऐब छुपा लेते हैं
वफ़ा के ज़ख़्म हम धोने न पाए
ज़िंदगी की बिसात पर 'बाक़ी'
तुझ को देखा तिरे वादे देखे
क्यूँ सबा की न हो रफ़्तार ग़लत
कान पड़ती नहीं आवाज़ कोई
इस कार-ए-गह-ए-रंग में हम तंग नहीं क्या
हम ज़र्रे हैं ख़ाक-ए-रहगुज़र के
मरहला दिल का न तस्ख़ीर हुआ
हर नए हादसे पे हैरानी
रहने दो कि अब तुम भी मुझे पढ़ न सकोगे