ज़िंदगी की बिसात पर 'बाक़ी'
मौत की एक चाल हैं हम लोग
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मरहला दिल का न तस्ख़ीर हुआ
वक़्त के पास हैं कुछ तस्वीरें
वो नज़र आईना-फ़ितरत ही सही
यूँ भी होने का पता देते हैं
रस्म-ए-सज्दा भी उठा दी हम ने
तुम कब थे क़रीब इतने मैं कब दूर रहा हूँ
उन का या अपना तमाशा देखो
हर तरफ़ बिखर हैं रंगीं साए
दोस्ती ख़ून-ए-जिगर चाहती है
आस्तीं में साँप इक पलता रहा
पहले हर बात पे हम सोचते थे