यूँ भी होने का पता देते हैं
अपनी ज़ंजीर हिला देते हैं
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हर तरफ़ बिखर हैं रंगीं साए
यही रस्ता है अब यही मंज़िल
दोस्ती ख़ून-ए-जिगर चाहती है
इस बदलते हुए ज़माने में
वफ़ा के ज़ख़्म हम धोने न पाए
तेरे ग़म से तो सुकून मिलता है
कहता है हर मकीं से मकाँ बोलते रहो
तुझ को देखा तिरे वादे देखे
कान पड़ती नहीं आवाज़ कोई
उन का या अपना तमाशा देखो