पहले हर बात पे हम सोचते थे
अब फ़क़त हाथ उठा देते हैं
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ज़िंदगी की बिसात पर 'बाक़ी'
दिल जिंस-ए-मोहब्बत का ख़रीदार नहीं है
रस्म-ए-सज्दा भी उठा दी हम ने
ख़ुद-फ़रेबी सी ख़ुद-फ़रेबी है
कुछ न पा कर भी मुतमइन हैं हम
दिल में जब बात नहीं रह सकती
वो अंधेरा है जिधर जाते हैं हम
तेरे ग़म से तो सुकून मिलता है
हम कि शोला भी हैं और शबनम भी
यूँ भी होने का पता देते हैं
कहता है हर मकीं से मकाँ बोलते रहो