ख़ुद-फ़रेबी सी ख़ुद-फ़रेबी है
पास के ढोल भी सुहाने लगे
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वफ़ा के ज़ख़्म हम धोने न पाए
तेरे ग़म से तो सुकून मिलता है
कुछ न पा कर भी मुतमइन हैं हम
कान पड़ती नहीं आवाज़ कोई
यूँ भी होने का पता देते हैं
एक पल में वहाँ से हम उट्ठे
उन का या अपना तमाशा देखो
दुनिया ने हर बात में क्या क्या रंग भरे
ज़िंदगी की बिसात पर 'बाक़ी'
एतिबार-ए-नज़र करें कैसे
एक दीवार उठाने के लिए