पत्थर Poetry (page 2)
कितने इम्काँ थे जो ख़्वाबों के सहारे देखे
ज़िया जालंधरी
ज़ेहरा ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है
ज़ेहरा निगाह
इंसाफ़
ज़ेहरा निगाह
सूरा-ए-फ़ातिहा
ज़ीशान साहिल
बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
ज़ेब ग़ौरी
मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या
ज़ेब ग़ौरी
मरने का सुख जीने की आसानी दे
ज़ेब ग़ौरी
कब तलक ये शाला-ए-बे-रंग मंज़र देखिए
ज़ेब ग़ौरी
हो चुके गुम सारे ख़द्द-ओ-ख़ाल मंज़र और मैं
ज़ेब ग़ौरी
हवा में उड़ता कोई ख़ंजर जाता है
ज़ेब ग़ौरी
है सदफ़ गौहर से ख़ाली रौशनी क्यूँकर मिले
ज़ेब ग़ौरी
है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी
ज़ेब ग़ौरी
बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
ज़ेब ग़ौरी
गुल-पोश बाम-ओ-दर हैं मगर घर में कुछ नहीं
ज़ौक़ी मुज़फ्फ़र नगरी
वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता
ज़रीफ़ लखनवी
उस शाम को जब रूठ के में घर से चला था
ज़मीर काज़मी
कमाँ पे चढ़ के ब-शक्ल-ए-ख़दंग होना पड़ा
ज़मीर अतरौलवी
इश्क़ में तेरे जंगल भी घर लगते हैं
ज़किया ग़ज़ल
बे-मकाँ मेरे ख़्वाब होने लगे
ज़की तारिक़
कितनी ताबीरों के मुँह उतरे पड़े हैं
ज़का सिद्दीक़ी
चाँद की बेबसी को समझूँगी
ज़हरा क़रार
चाँद की बेबसी को समझूँगी
ज़हरा क़रार
आप को क्यूँ नहीं लगा पत्थर
ज़हरा क़रार
इल्ज़ाम बता कौन मिरे सर नहीं आया
ज़ाहिदुल हक़
किसी मंज़र के पस-मंज़र में जा कर
ज़ाहिद शम्सी
ख़्वाब सितारे होते होंगे लेकिन आँखें रेत
ज़ाहिद शम्सी
बिसात-ए-शौक़ के मंज़र बदलते रहते हैं
ज़ाहिद फ़ारानी
वजूद उस का कभी भी न लुक़्मा-ए-तर था
ज़हीर सिद्दीक़ी
अब है क्या लाख बदल चश्म-ए-गुरेज़ाँ की तरह
ज़हीर काश्मीरी
आइने में ख़ुद अपना चेहरा है
ज़हीर ग़ाज़ीपुरी
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