शौक Poetry (page 2)

शहर-ए-आशोब

ज़िया जालंधरी

तुम्हारी चाहत की चाँदनी से हर इक शब-ए-ग़म सँवर गई है

ज़िया जालंधरी

इक ख़्वाब था आँखों में जो अब अश्क-ए-सहर है

ज़िया जालंधरी

इश्क़ ने कर दिया क्या क्या सुख़न-आरा तिरे नाम

ज़िया फ़ारूक़ी

अब तक शरीक-ए-महफ़िल-ए-अग़्यार कौन है

ज़ेहरा निगाह

हम बे-घरों के दिल में जगाती है डर गली

ज़िशान इलाही

ग़ुबार-ए-इश्क़ से हस्ती को भरने वाला हूँ मैं

ज़ीशान साजिद

दीवार-ओ-दर थे जान सराए निकल गए

ज़ीशान साजिद

कोई ख़बर ही न थी मर्ग-ए-जुस्तुजू की मुझे

ज़ेब ग़ौरी

मेरा अदम वजूद भी क्या ज़र-निगार था

ज़ेब ग़ौरी

कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में

ज़ेब ग़ौरी

पयाम

ज़े ख़े शीन

वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता

ज़रीफ़ लखनवी

तेरे रहने को मुनासिब था कि छप्पर होता

ज़रीफ़ लखनवी

तमन्ना है किसी की तेग़ हो और अपनी गर्दन हो

ज़रीफ़ लखनवी

महशरिस्तान-ए-जुनूँ में दिल-ए-नाकाम आया

ज़रीफ़ लखनवी

सभी को ख़्वाहिश-ए-तस्ख़ीर-ए-शौक़-ए-हुक्मरानी है

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

हैं गर्दिशें भी रवाँ बख़्त के सितारे में

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

धूप थे सब रास्ते दरकार था साया हमें

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

तिरे बग़ैर कटे दिन न शब गुज़रती है

ज़की तारिक़

मेरे ख़्वाबों का कभी जब आसमाँ रौशन हुआ

ज़की तारिक़

उन को भी उतारा है बड़े शौक़ से हम ने

ज़करिय़ा शाज़

खिड़की तो 'शाज़' बंद मैं करता हूँ बार बार

ज़करिय़ा शाज़

उतरें गहराई में तब ख़ाक से पानी आए

ज़करिय़ा शाज़

उस का ख़याल दिल में घड़ी दो घड़ी रहे

ज़करिय़ा शाज़

हम तुझ से कोई बात भी करने के नहीं थे

ज़करिय़ा शाज़

नियाज़-ओ-नाज़ के साग़र खनक जाएँ तो अच्छा है

ज़ेब बरैलवी

इश्क़ की मंज़िल में अब तक रस्म मर जाने की है

ज़ेब बरैलवी

इस अदा से इश्क़ का आग़ाज़ होना चाहिए

ज़ेब बरैलवी

ज़ब्त-ए-ग़म मुश्किल है और मुश्किल है मुश्किल का जवाब

ज़हीर अहमद ताज

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