दर्पण Poetry (page 16)

ख़ुद-ब-ख़ुद आँख बदल कर ये सवाल अच्छा है

हफ़ीज़ जौनपुरी

ख़ुद-बख़ुद आँख बदल कर ये सवाल अच्छा है

हफ़ीज़ जौनपुरी

दुनिया में यूँ तो हर कोई अपनी सी कर गया

हफ़ीज़ जौनपुरी

इन गेसुओं में शाना-ए-अरमाँ न कीजिए

हफ़ीज़ जालंधरी

राज़-ए-सर-बस्ता मोहब्बत के ज़बाँ तक पहुँचे

हफ़ीज़ होशियारपुरी

गुमराह कह के पहले जो मुझ से ख़फ़ा हुए

हफ़ीज़ बनारसी

हज़ार ख़ाक के ज़र्रों में मिल गया हूँ मैं

हादी मछलीशहरी

है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है

हबीब मूसवी

फ़लक की गर्दिशें ऐसी नहीं जिन में क़दम ठहरे

हबीब मूसवी

मोहब्बत के सिवा हर्फ़-ओ-बयाँ से कुछ नहीं होता

गुलज़ार बुख़ारी

शजर बाग़-ए-जहाँ का था जहाँ तक सब समर लाया

ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी

ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

क्यूँकर न ख़ुश हो सर मिरा लटक्का के दार में

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

हसरत ऐ जाँ शब-ए-जुदाई है

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

स्वाँग अब तर्क-ए-मोहब्बत का रचाया जाए

गोपाल मित्तल

जो शुआ-ए-लब है मौज-ए-नौ-बहार-ए-नग़्मा है

गोपाल मित्तल

रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मैं तिरे वास्ते आईना था

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

न मिरा ज़ोर न बस अब क्या है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मिरी सिफ़ात का जब उस ने ए'तिराफ़ किया

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

कहने सुनने का अजब दोनों तरफ़ जोश रहा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

वो लोग मुतमइन हैं कि पत्थर हैं उन के पास

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

सोते हैं वो आईना ले कर ख़्वाबों में बाल बनाते हैं

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

हम ने तो बे-शुमार बहाने बनाए हैं

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

क्या कहें तुझ से हम वफ़ा क्या है

ग़ुलाम मौला क़लक़

उफ़ुक़ से आग उतर आई है मिरे घर भी

ग़ुलाम हुसैन साजिद

नहीं है इस नींद के नगर में अभी किसी को दिमाग़ मेरा

ग़ुलाम हुसैन साजिद

नहीं आसाँ किसी के वास्ते तख़्मीना मेरा

ग़ुलाम हुसैन साजिद

लरज़ जाता है थोड़ी देर को तार-ए-नफ़स मेरा

ग़ुलाम हुसैन साजिद

चराग़ की ओट में है मेहराब पर सितारा

ग़ुलाम हुसैन साजिद

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