दर्पण Poetry (page 1)

क्यूँ मसाफ़त में न आए याद अपना घर मुझे

फ़ौक़ लुधियानवी

अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

अना

अज़ीज़ क़ैसी

शहर की गलियाँ चराग़ों से भर गईं

जवाज़ जाफ़री

सितम कब उन पे ढाया है किसी ने

जावेद सिद्दीक़ी आज़मी

अफ़्सूँ पहली बारिश का

मसूद मिर्ज़ा नियाज़ी

इमारत हो कि ग़ुर्बत बोलती है

वलीउल्लाह वली

महाऋषि-स्वामी-दयानंद

चरख़ चिन्योटी

बादशाह तेरी दहलीज़ का दरबान है

जवाज़ जाफ़री

वो सानेहा हुआ था कि बस दिल दहल गए!

ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश

अश्क गिरने की सदा आई है

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन

ज़ुहूर नज़र

इश्क़ में मारके बला के रहे

ज़ुहूर नज़र

तिलस्माती फ़ज़ा तख़्त-ए-सुलैमाँ पर लिए जाना

ज़ुबैर शिफ़ाई

जबीं से नाख़ुन-ए-पा तक दिखाई क्यूँ नहीं देता

ज़ुबैर शिफ़ाई

वो आ गया तो सारा परी-ख़ाना जी उठा

ज़ुबैर रिज़वी

नज़र नज़र से मिलाओगे मारे जाओगे

ज़ुबैर क़ैसर

साफ़ आईना है क्यूँ मुझे धुँदला दिखाई दे

ज़ुबैर फ़ारूक़

लोग कहते हैं यहाँ एक हसीं रहता था

ज़ुबैर फ़ारूक़

अपनी तश्हीर करे या मुझे रुस्वा देखे

ज़िया शबनमी

उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

जीने में आसानी रख

ज़िया ज़मीर

वक़्त कातिब है

ज़िया जालंधरी

आँसू

ज़िया जालंधरी

तू ने नज़रों को बचा कर इस तरह देखा मुझे

ज़िया फ़तेहाबादी

अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा

ज़ेहरा निगाह

ज़ेहरा ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है

ज़ेहरा निगाह

यूँ कहने को पैराया-ए-इज़हार बहुत है

ज़ेहरा निगाह

अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा

ज़ेहरा निगाह

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