रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को
रू-ब-रू होते हुए भी मैं फ़रामोश रहा
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हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
साँसों के आने जाने से लगता है
मैं तिरे वास्ते आईना था
अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
एक दिन दरिया मकानों में घुसा
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
मेरी पहचान बताने का सवाल आया जब
आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो