साँसों के आने जाने से लगता है
इक पल जीता हूँ तो इक पल मरता हूँ
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बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो
कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ
अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
नहीं है बहर-ओ-बर में ऐसा मेरे यार कोई
मिरी सिफ़ात का जब उस ने ए'तिराफ़ किया
गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को
सहरा जंगल सागर पर्बत
झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई