कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को
कैसे साहिल पर इक मछली ज़िंदा है
Jaun Eliya
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देखने सुनने का मज़ा जब है
साँसों के आने जाने से लगता है
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
मैं तिरे वास्ते आईना था
चाहता है वो कि दरिया सूख जाए
नायाब चीज़ कौन सी बाज़ार में नहीं
चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
एक दिन दरिया मकानों में घुसा
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता